“सारणेश्वर महादेव मंदिर” (Sarneshwar Mahadev Temple) सिरोही शहर से करीब 4.3 किलोमीटर दूर सरणुआ की पहाडियों में सिरोही बायपास , ब्यावर – पिंडवारा नेशनल हाई वे रोड से थोड़ी दुरी पर स्थित है !

सारणेश्वरजी महादेव का धार्मिक महत्व (Sarneshwar Mahadev Temple)
सारणेश्वरजी महादेव (Sarneshwar Mahadev Temple) न केवल सिरोही के इतिहास का प्रतीक हैं, बल्कि धार्मिक आस्था के एक केंद्र भी हैं। इस मंदिर में हर साल हजारों श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति और कोढ़ जैसे गंभीर रोगों के इलाज के लिए आते हैं। ऐसा माना जाता है कि श्री सारणेश्वरजी महादेव की कृपा से सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं और रोग भी दूर होते हैं।

सारणेश्वरजी मेले का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व
सिरोही जिले का सारणेश्वरजी (Sarneshwar Mahadev Temple) मेला न केवल एक धार्मिक पर्व है, बल्कि यह सिरोही के गौरवशाली इतिहास की भी एक जीवंत गाथा है। हर साल देवझूलनी एकादशी के अवसर पर मनाया जाने वाला यह मेला, अलाउद्दीन खिलजी की सेना पर सिरोही के महाराव विजय राज और उनके वीर सैनिकों की विजय का प्रतीक है। यह मेला स्थानीय जनता और रेबारी समाज की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है, जिसने अपने साहस और वीरता से राजस्थान की एक छोटी सी रियासत को एक शक्तिशाली दिल्ली सल्तनत से बचाया।
इतिहास की पृष्ठभूमि: अलाउद्दीन खिलजी और सिरोही का संघर्ष
साल 1298 ईस्वी का दौर था जब दिल्ली सल्तनत का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी भारत के कई हिस्सों को अपने अधीन करने में सफल हो चुका था। गुजरात का सोलंकी साम्राज्य, जो उस समय काफी समृद्ध था, भी खिलजी के आक्रमणों का शिकार बना। खिलजी ने गुजरात की राजधानी सिद्धपुर के प्रसिद्ध रूद्रमाल शिवालय को नष्ट कर दिया, जो सोलंकी राजाओं द्वारा निर्मित था। वहां से शिवलिंग को अपमानजनक ढंग से गाय के खून और चमड़े में लपेटकर दिल्ली ले जाने का आदेश दिया गया। यह न केवल धार्मिक आस्था का अपमान था, बल्कि हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा पर भी एक बड़ा आघात था।
जब खिलजी की सेना इस शिवलिंग (Sarneshwar Mahadev Temple) को दिल्ली ले जाने के लिए निकली और आबूपर्वत की तलेटी में बसे चन्द्रावती नगरी के पास पहुंची, तब सिरोही के महाराव श्री विजय राजजी को इसकी सूचना मिली। यह सूचना उनके लिए एक चुनौती थी, जो सिरोही की धार्मिक आस्था और सम्मान के लिए खड़ी थी। महाराव श्री विजय राजजी ने इस अपमान का बदला लेने और शिवलिंग को मुगल सेना से मुक्त कराने का संकल्प लिया।
वीरता और बलिदान की गाथा: सिरणवा पहाड़ी का युद्ध
महाराव श्री विजय राजजी ने अपने सहयोगी राजाओं के साथ मिलकर एक मजबूत सेना तैयार की और सिरणवा पहाड़ी की तलहटी में खिलजी की सेना पर हमला किया। यह युद्ध भारतीय इतिहास के उन संघर्षों में से एक था, जो धर्म और आस्था की रक्षा के लिए लड़ा गया। सिरोही की सेना ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी और अंततः दिल्ली की शक्तिशाली सेना को पराजित किया। इस युद्ध में राजपूतों की वीरता और साहस ने सिरोही को एक अद्वितीय स्थान दिलाया।

इस विजय के बाद दीपावली के दिन, महाराव विजय राज ने रूद्रमाल के शिवलिंग(Sarneshwar Mahadev Temple) को सिरणवा पहाड़ियों के पास विधिपूर्वक स्थापित करवाया। इस घटना के बाद इस स्थान का नाम “क्षारणेश्वर”(Sarneshwar Mahadev Temple) पड़ा, जिसका अर्थ है तलवारों की ध्वनि से गूंजने वाला स्थान। आज यह स्थान सारणेश्वरजी के नाम से प्रसिद्ध है और हर साल यहां श्रद्धालु आते हैं।
अलाउद्दीन खिलजी का दूसरा हमला और चमत्कारिक घटना
महाराव श्री विजय राजजी से मिली हार के बाद, अलाउद्दीन खिलजी आग बबूला हो गया। उसने सिरोही पर अपना बदला लेने के लिए 10 महीने बाद, 1299 ईस्वी में एक विशाल सेना के साथ फिर से हमला किया। उसका उद्देश्य था कि वह क्षारणेश्वर के शिवलिंग को तोड़कर सिरोही को पूरी तरह नष्ट कर देगा। खिलजी की सेना इस बार और भी बड़ी और शक्तिशाली थी, लेकिन सिरोही की जनता और रेबारी समाज ने एकजुट होकर उसका सामना किया।
इस युद्ध में सिरणवा पहाड़ियों के हर पत्थर और पेड़ के पीछे छिपकर रेबारी समुदाय के योद्धाओं ने गोफण के पत्थरों से खिलजी की सेना पर हमला किया। इस अनोखे युद्ध कौशल और प्रबल इच्छा शक्ति के चलते खिलजी की सेना को फिर से हार का सामना करना पड़ा। उसकी सेना इतनी बुरी तरह से हारी कि खिलजी को मजबूरन सिरणेश्वर (Sarneshwar Mahadev Temple) से एक किलोमीटर दूर अपना पड़ाव डालना पड़ा।
यहीं पर अलाउद्दीन खिलजी पर ईश्वरीय प्रकोप हुआ और उसे भयंकर कोढ़ हो गया। उसकी सेना में जो भी उसके पास जाता था, वह भी इस रोग का शिकार हो जाता था। इस हालत में खिलजी ने अपने विश्वासपात्र मलिक काफूर को बुलवाया। मलिक काफूर, जो चालाक और बुद्धिमान था, उसने इस रोग से बचने के लिए अपने पूरे शरीर को ढककर सुल्तान से मुलाकात की।
चमत्कार का प्राकट्य और खिलजी की चिकित्सा
एक दिन खिलजी के शिकारी कुत्ते जो सेना में शामिल थे वो कही से भीग कर आये और सुलतान खिलजी के पास आकर अपना शरीर झटका जिससे कुत्ते के शरीर का पानी की कुछ बूंद खिलजी के शरीर पर गिरी ! जहां-जहां यह पानी गिरा, वहां खिलजी का कोढ़ ठीक होने लगा। यह देखकर सुल्तान ने आदेश दिया कि पता लगाया जाए कि ये कुत्ते कहां से नहाकर आए हैं।
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मलिक काफूर ने कुत्तों का पीछा किया और पाया कि वे क्षारणेश्वर मंदिर (Sarneshwar Mahadev Temple) के पास के एक जलस्रोत से नहाकर आए थे। यह जानने के बाद, खिलजी ने महाराव श्री विजय राजजी से इस जलस्रोत का पानी स्नान के लिए मांगा। महाराव ने मानवता के धर्म का पालन करते हुए खिलजी को पानी उपलब्ध कराया। उस पानी से स्नान करने के बाद खिलजी का रोग पूरी तरह ठीक हो गया। इस चमत्कार को देखकर, खिलजी ने इसे देवीय कृपा माना और सिरोही पर फिर कभी हमला न करने का वचन देकर दिल्ली लौट गया।
सारणेश्वरजी महादेव मेला और उसकी परंपरा
देवझूलनी एकादशी के दिन महाराव श्री विजय राजजी और सिरोही की प्रजा ने अलाउद्दीन खिलजी को हराया था, इसलिए यह इतिहासिक विजय दिवस् सिरोही के लिए महत्वपूर्ण बन गया और इस जीत की स्मृति में महाराव श्री विजय राजजी ने उस क्षेत्र के रबारी समाज को एक दिन के लिए क्षारणेश्वर का अधिकार दिया।
इस वचन ने एक परंपरा का रूप ले लिया, जो आज भी हर साल निभाई जाती है। देवझूलनी एकादशी की रात को सारणेश्वर मंदिर, जो अब अपभ्रंशित होकर सारणेश्वर कहलाता है, पर रबारी समाज को राज परिवार की ओर से अधिकार दिया जाता है। यह परंपरा पिछले 718 सालों से चली आ रही है और इसे स्थानीय विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है।
सारणेश्वर मेला सिरोही के इतिहास, धर्म और संस्कृति का अद्वितीय प्रतीक है। यह मेला हर साल सिरोही की जीत और हिन्दू आस्था की रक्षा की याद में मनाया जाता है।