माउंट आबू, राजस्थान का एक खूबसूरत और शांत पर्यटक स्थल, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और ऐतिहासिक धरोहरों के लिए जाना जाता है। यहां का एक प्रमुख आकर्षण है देलवाड़ा जैन मंदिर। यह मंदिर अपनी अद्वितीय वास्तुकला और सफेद संगमरमर की कलाकारी के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है। देलवाड़ा जैन मंदिर जैन धर्म के तीर्थंकरों को समर्पित है और इसे 11वीं और 13वीं शताब्दी के बीच बनवाया गया था। मंदिर के अंदर की दीवारों पर की गई बारीक नक्काशी और सुंदर मूर्तियाँ इसे और भी खास बनाती हैं। यहाँ आने वाले पर्यटक मंदिर की शांति और आर्किटेक्चर से बेहद प्रभावित होते हैं।
आईये जानते है देलवाडा जैन मंदिर का पूरा इतिहास
देलवाड़ा जैन मंदिर का निर्माण 11वीं और 13वीं शताब्दी के बीच हुआ था। इसका निर्माण राजा वास्तुपाल और तेजपाल ने करवाया था, जो गुजरात के राजा थे। कहा जाता है कि ये दोनों भाई जब माउंट आबू आए, तो यहां की प्राकृतिक सुंदरता से बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने सोचा कि इस स्थान पर एक ऐसा मंदिर बनाया जाए जो न सिर्फ जैन धर्म के अनुयायियों के लिए महत्वपूर्ण हो, बल्कि पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो जाए। इसी सोच के साथ उन्होंने मंदिर का निर्माण शुरू करवाया।
राजा वास्तुपाल और तेजपाल ने दुनिया के बेहतरीन कारीगरों को माउंट आबू बुलाया और उन्हें एक अद्वितीय मंदिर का नक्शा बनाने का काम सौंपा। कई कारीगरों ने अपने-अपने नक्शे प्रस्तुत किए, लेकिन एक कारीगर जिसका नाम रसिया बालम था, उसकी योजना सबसे अलग और खास थी। रसिया बालम माँ अर्बुदा (अधर देवी) का उपासक था, और उसने मंदिर निर्माण से पहले देवी माँ का आशीर्वाद लिया।
देलवाड़ा जैन मंदिर का निर्माण कार्य बेहद कठिन था, क्योंकि इसमें बड़े-बड़े संगमरमर के पत्थरों का इस्तेमाल हुआ। इन पत्थरों को हाथियों द्वारा दूर-दूर से माउंट आबू लाया गया। मंदिर में की गई नक्काशी का काम बेहद जटिल था, और यह प्रक्रिया वर्षों तक चली। कारीगरों को उनकी मेहनत के अनुसार प्रतिदिन पत्थरों से निकलने वाले चूरे के बराबर सोने का भुगतान किया जाता था। इस कारण कारीगरों ने बेहद बारीकी से नक्काशी की, जिससे मंदिर की दीवारें और स्तंभ अद्वितीय हैं।
मंदिर निर्माण के बाद राजा वास्तुपाल और तेजपाल इस अद्वितीय मंदिर की सुंदरता देखकर बेहद खुश हुए। जब उनकी रानियों ने देखा कि राजा ने इस भव्य मंदिर का निर्माण करवा कर अपना नाम अमर कर लिया है, तो उन्होंने भी अपना योगदान देने का विचार किया। उन्होंने कारीगरों से कहा कि उनके लिए भी मंदिर में कुछ विशेष निर्माण किया जाए, जिससे उनकी भी स्मृति यहाँ बनी रहे। इस पर रसिया बालम ने रानियों के लिए ‘देरानी जेठानी’ के गोखले (छोटे कक्ष) बनाए, जो आज भी मंदिर परिसर में मौजूद हैं। इन कक्षों की नक्काशी भी बेहद सुंदर और कलात्मक है।
जब मंदिर का निर्माण कार्य पूरा हो गया, तो कारीगरों ने सोचा कि उन्होंने राजा के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण किया है, जिसमें बहुत सारा धन खर्च हुआ और उन्हें सोने के रूप में पारिश्रमिक भी मिला। लेकिन वे खुद को इतिहास में अमर करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बचे हुए पत्थरों से एक छोटा मंदिर बनाया, जो आज भी देलवाड़ा जैन मंदिर परिसर में देखा जा सकता है। इस मंदिर की नक्काशी भी बहुत सुंदर है और इसे कारीगरों द्वारा उनके स्वयं के लिए बनाया गया था।
रसिया बालम की कारीगरी से राजा खुश होकर बोला की एक ही रात में अगर यहाँ एक झील का निर्माण कर दो तो मेरी इकलोती बेटी का विवाह तुमसे कर दूंगा और शर्त यह थी की सुबह भोर होने से पहले विवाह हो जाए !
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